Monday, November 14, 2011

डा. दिनेश पाठक ‘शशि’ व उनकी लघुकथाएं...

पाठकों को बिना किसी भेदभाव के अच्छी लघुकथाओं व लघुकथाकारों से रूबरू कराने के क्रम में हम इस ब्लाग में पहली बार प्रसिद्ध साहित्यकार श्री दिनेश पाठक ‘शशि’ की तीन लघुकथाएं उनके फोटो, परिचय के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है पाठकों को श्री पाठक की लघुकथाओं व उनके बारे में जानकर अच्छा लगेगा।        - किशोर श्रीवास्तव


परिचय
डॉ॰ दिनेशपाठक "शशि"
जन्म- 10 जुलाई 1957, रामपुर(नरौरा), जिला- बुलन्दशहर (उ०प्र०)
पिता- पं० हरप्रसाद पाठक  माता- श्रीमती चंपा देवी
शिक्षा- एम..(हिन्दी), पी-एच॰डी॰ (भारतीय रेल के साहित्यकारों का हिन्दी भाषा एवं साहित्य को प्रदेय), विद्युत इंजीनियरिंग
प्रकाशन : सन्1975 से स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों में कहानी, बाल कहानी, लघुकथा, लेख एवं समीक्षाओं का निरन्तर प्रकाशन यथा -

पत्र-पत्रिकाओं में :
कादम्बिनी, नवनीत, सारिका, साप्ता० हिन्दुस्तान, वर्ष वैभव, कथाबिम्ब, पंजाब सौरभ, हरिगंधा, घर प्रभात, सेवन हिल्स, रमणी, सहेली समाचार, आकाशवाणी (हिन्दी), प्रतिबिम्ब, मोहन प्रभात, युवाहिन्द, हमारी पहल, षट्मुखी, पहुँच, सम्मार्जिनी, इरा इण्डिया, तारिका, किशोर क्रान्ति, मृगपाल, रूपकंचन, सुपरब्लेज, कजरारी, मुक्ता, मनियाँ, भूभारती, तुम्हारी मौत का जिम्मेदार, नवतारा, मित्र संगम, प्रौढ़ जगत, भारतीय रेल पत्रिका, रेल राजभाषा, शब्दवर, मनमुक्ता, भाषासेतु, प्रतिप्रश्न, जगमग दीप ज्योति, अतएव, अक्षरा, कार्टूनवाच, डुमडुमी, ब्रजशतदल, जमुना जल, आकार, विश्वविवेक (अमेरिका), अमीबा, पंजाबी संस्कृति, हाइकू भारती, युवा सुरभि, सानुबन्ध, फाग, वामांगी, प्रयास, सम्यक्‌, अछूते सन्दर्भ, नारायणीयम्‌, मानक रश्मि, तरंग शिक्षा, सामाजिक आक्रोश, राजनैतिक समाचार पत्रिका, सन्मार्ग, विजय यात्रा, शोषितदुनिया, राष्ट्रीय श्रमिक, चौथी दुनिया, ब्रज गरिमा, जे.वी.जी. टाइम्स, राष्ट्रीय सहारा, निर्दलीय, लोक शासन, हम सब साथ-साथ, ब्रज सलिला, सरोजिनी, हाइकु दर्पण, शीराजा, डी.एल.., अमर उजाला, दैनिक जागरण, उत्तर प्रदेश आदि।

बाल-साहित्य :
बालक, बालहंस, बाल नगर, बालमंच, देव पुत्र, बाल पताका, बाल साहित्य समीक्षा, बाल बाटिका, कुटकुट, चंपक, लल्लू जगधर, चिल्ड्रेन बुलेटिन, हरियाणा रेडक्रास, हिमांक रतन, स्नेह, बच्चों का देश, बाल स्वर, बाल मिलाप, उपनिधि, कमला वाटिका, बाल प्रतिबिम्ब आदि में।

संकलनों में :
अक्षरों का विद्रोह, स्वरों का आक्रोश, कितनी आवाजें, उपहार, शिलालेख, सम्यक्‌, शब्दों के तेवर, व्यंग्य भरे कटाक्ष, व्यंग्य कथाओं का संसार, अछूते संदर्भ, (सभी लघुकथा संकलन), सवारी सरकार बहादुर की आधी हकीकत, टुकड़ा-टुकड़ा सच (सभी लघुकथा संकलन), ऐतिहासिक बाल कहानियाँ, आधुनिक बाल कहानियाँ, इक्कीसवीं सदी की बाल कहानियाँ, बाल मन की कहानियाँ, फुलवारी (सभी बाल कहानी संकलन) साहित्य और उत्तर संस्कृति, कहानी जंक्शन, कहानियों का कुनबा, हिन्दी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ, चर्चित व्यंग्य लघुकथाएं आदि।

प्रसारण : सन्‌ 1980 से आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों मथुरा-वृन्दावन, दिल्ली, रोहतक, ग्वालियर एवं राष्ट्रीय चैनल दिल्ली से कहानी, ब्रज कहानी, कविता, नाटक एवं झलकियों का प्रसारण।

प्रकाशित कृतियाँ:
* अनुत्तरित (कहानी संग्रह),
* धुंध के पार (कहानी संग्रह),
* बेडियाँ (ब्रजनवकथा-संग्रह),
* हाँ, यह सच है (लघुकथा-संग्रह),
* अमर ज्योति,
* पुस्तकों की हडताल,
* अनुपम बाल कहानियाँ,
* सपने में सपना,
* जादुई अंगूठी,
* मेहनत का फल,
* मेरा जैकी,
* नई शिक्षा नई दिशा (सभी बाल कहानी-संग्रह),
* किट्‌टी (बाल उपन्यास)
* भारतीय रेलः इतिहास एवं उपलब्धियाँ (शोध)।
इन्टरनेट पर कहानियां एवं लघुकथाएं, तथा व्यंग्य रचनाएँ
कुछ बाल कहानियाँ कक्षा १,२ एवं ६ की हिन्दी पाठ्‌य पुस्तकों में,
कुछ बाल कहानियों का हिन्दी से अंग्रेजी, बंगला, मराठी आदि में अनुवाद तथा कुछ लघुकथाओं का पंजाबी में अनुवाद प्रकाशित,
आगरा विश्व विद्यालय की एक छात्रा शिखा तोमर ने व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर शोध किया है।
संपादन :
1. समकालीन लघुकथा (ल.क. संकलन)
2. शब्दों के तेवर (ल.क. संकलन)
3. कदम-कदम समझौते (ल.क. संकलन)
4. टुकड़ा-टुकडा सच (व्यंग्य संकलन)
5. आधी हकीकत (व्यंग्य संकलन)
6. इक्कीसवीं सदी की चुनिंदा दहेज कथाएँ (कहानी संकलन)
7. आदमखोर (कहानी संकलन)
8. कब टूटेंगी बेडियाँ (दहेज ल. कथा संकलन)
9. धत्‌ तेरे की (व्यंग्य-संकलन)
10. सम्यक त्रैमा० (लघुकथा विशेषांक)
11. सम्यक्‌ (महिला लघुकथाकार विशेषांक)
12. बाल साहित्य समीक्षा (मथुरा साहित्यकार अंक)
13. यू.एस.एम. मासिक (मथुरा विशेषांक)
14. बाल साहित्य समीक्षा (मथुरा संतोष कुमार सिंह अंक), 15. बाल साहित्य समीक्षा (पं० ललित कुमार वाजपेयी उन्मुक्त विशेषांक)।
संपादन सहयोग :
1. विजय यात्रा साप्ता० सन्‌ 1980-81
2. राष्ट्रीय श्रमिक (पाक्षिक) सन्‌ 1980-81
3. सम्यक्‌ (मासिक) 1996 से 2006 तक
4. हाइकु दर्पण (मासिक), अगस्त 2001 से 2005 तक
5. मसि कागद (मासिक) 2004 से जून 2006 तक। 

पुरस्कार/सम्मानः
1. भारत सरकार द्वारा प्रेमचंद पुरस्कार-1996
2. राष्ट्रकवि पं.सोहनलाल द्विवेदी बाल साहित्य पुरस्कार समिति  चित्तौड गढ द्वारा सम्मानित-1998
3. भारतीय बाल कल्याण संस्थान कानपुर द्वारा सम्मानित- 1999
4. अखिल भारतीय साहित्यकार अभिनन्दन समिति मथुरा द्वारा सम्मानित - 2000
5. संभावना साहित्यिक संस्था नोएडा द्वारा मायाश्री पुरस्कार - 2003
6. बालगंगा साहित्यिक संस्था जयपुर द्वारा सम्मानित-2004
7. ब्रजकला केन्द्र मथुरा द्वारा सम्मानित- 2005
8. उद्‌भावना साहित्यिक संस्था मथुरा द्वारा सम्मानित- 2007
9. जमुना जल साहित्यिक संस्था मथुरा द्वारा सम्मानित-2009
10. भारत सरकार द्वारा लाल बहादुर द्याशास्त्री पुरस्कार-2009
11. अनुराग सेवा संस्थान लालसोठ(राज.) द्वारा सम्मानित-2010

प्रतिनिधि :
1. शुभ तारिका (मासिक) अम्बाला,1980 से,
2. बच्चों का देश (मासिक) सन्‌ 2002 से
3. बाल प्रतिबिम्ब (मासिक) सन्‌ 2002
सलाहकार : हम सब साथ साथ (मासिक) दिल्ली
सचिव : पं० हरप्रसाद पाठक-स्मृति बाल साहित्य पुरस्कार समिति, मथुरा
सम्प्रति : इंजीनियर(प्रथम) भारतीय रेल

सम्पर्क : 28, सारंग विहार, पोस्ट- रिफायनरी नगर, मथुरा-281006, मोबा. 09412727361

ईमेल drdinesh57@gmail.com   ब्लाग http://drdineshpathakshashi.blogspot.com
  

लघुकथाएं

साया

दादीजी की अस्वस्थता जितनी अधिक होती जा रही थी उससे भी अधिक इस स्थिति में बात-बात पर उनका चिड़चिड़ापन पूरे परिवार को असहनीय होता जा रहा था।
                उनके इस व्यवहार से तंग आकर घर के लोग ही नहीं पास-पड़ोस के लोग भी ऊबने लगे थे।''लगता है अमृत पीकर आई है बुढि या, एक सौ पाँच साल की हो गई फिर भी..........''-आस-पड़ोस की महिलाएँ अपने विचार व्यक्त किए बिना रहतीं।
                किसी चीज की जरूरत पड ने पर दादी बार-बार एक ही बात को दुहराने लगतीं तो तंग आकर छुटका बोल पड ता-''ओफ्फो दादीजी आप तो बेमतलब का शोर मचाने लगती हो थोड़ी सी तसल्ली भी रखा करो।
                दादीजी पूरी रात आवाज लगा-लगाकर सबकी नींद में खलल डालती रहतीं मगर ऐसी हालत में भी पापा पूरी तरह शान्त बने रहकर दादीजी की सेवा में तत्पर थे। उन्हें तो दादीजी द्वारा बार-बार पुकारे जाने पर गुस्सा आता और दादीजी द्वारा रात भर जगाये जाने पर और बच्चों जैसी जिद करने पर ही।
                इसके बावजूद आखिर एक दिन दादीजी चल बसीं। पापा एकदम से गुमसुम हो गये। आखिर जब उनकी चुप्पी मुझसे बर्दास्त नहीं हुई तो मैंने टोक ही दिया,'-''क्या बात है पापा, दादीजी के गुजर जाने के बाद से आप कुछ ज्यादा ही गुमसुम से हो गये हैं।आखिर एक सौ पाँच साल की थीं दादी। उन्हें तो जाना ही था। ऐसी स्थिति में भी आपने उनकी जितनी सेवा की उतनी हर कोई नहीं कर सकता।फिर भी आप..............''
                ''तू ठीक कह रहा है बेटा।''-पापा ने अपनी चुप्पी तोड़ी-''लेकिन तेरी दादी जैसी भी थीं, जब तक जिन्दा रहीं मुझे अपने ऊपर उनका 'साया' प्रतीत होता था और मैं उनके सामने अपने आपको बहुत छोटा बच्चा समझता रहता था। लेकिन अब उनका साया अपने ऊपर से उठ जाने से अब मैं ही घर का सबसे बुजुर्ग मुखिया बन गया हूँ। बुजुर्ग का साया जब तक अपने ऊपर रहता है कितना सुकून मिलता है, ये बात तुम मेरे चले जाने के बाद समझोगे बेटे।


                पछतावा       
पुत्रवधू अपने मायके जाने का कोई भी अवसर चूकती नहीं, ।अपने पति के बाहर जाने पर स्वयं भी तैयार हो जाती  और पति को वाध्य कर देती कि वह उसे उसके मायके छोड़ते हुए बाहर जाये। ऐसा मुझे लगता
                मुझे इस बात का भी आश्चर्य होता कि ऐसा करने पर पुत्रवधू के माता-पिता भी उसको कोई सीख नहीं देते कि बेटी, ससुराल ही अब तुम्हारा असली घर है, कि तुम्हारी वृध्द सास भी अस्वस्थ रहती है और घर में अकेली भी, उनकी सेवा करना, उनके खान-पान और दवा-गोली का ध्यान रखना तुम्हारा फर्ज है।
ऐसे में जब मेरे मन में क्षोभ पैदा होने लगता तो मैं स्वयं ही किचिन  में  पड़े  झूठे वर्तनों को धोकर,खाना बनाकर और पत्नी को खाना खिलाने के बाद दवा आदि देकर दफ्तर चला जाता, पर कभी-कभी मन मे बहुत क्षोभ होने लगता- क्या इसी दिन के लिए ईश्वर से मिन्नतें की जाती हैं, सन्तान प्राप्ति हेतु, ऐसी गैर जिम्मेदार पुत्रवधू क्या मेरे ही भाग्य में लिखी थी आदि...........
                एक दिन शाम को पता लगा कि कल बहू-बेटे के दफ्तर की छुट्टी है। मैंने मन नही मन सोचा कि अब कल दोनों ही सुबह बजे से पहले बिस्तर नहीं छोड़ेंगे लेकिन दूसरे दिन सुबह के पाँच बजे ही बहू-बेटे को नहा-धोकर तैयार होते देखा तो मुझे आश्चर्य  हुआ। मैंने पुत्र से पूछा-''आज कहीं जाना है क्या?''
                ''हाँ दिल्ली जाना है''
                ''और इसको, बहू को भी जाना है?''
''हाँ''-पुत्र ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया
'फिर इस बच्चे को साथ ले जा रहे हो या यहीं छोड कर जाओगे?''-नन्हे से नाती की ओर देखते हुए मैंने पूछा
'इसे इसकी नानी के पास छोड ते हुए जायेंगे'
सुनकर मन तो बहुत कसमसाया पर मैं अपने क्रोध को अन्दर ही अन्दर पी गया, जाते समय सुबह ही सुबह क्यों क्ले की जाय
शाम को जब वे लौटकर आये तो रात हो चुकी थी दोनों के हाथों में सामान से भरे दो थैले लटक रहे थे जैसे शापिंग करके रहे हों
आते ही बहू ने थैले से एक स्लीपिंग सूट निकाला और नन्हे बच्चे को कालीन पर लिटाकर उसे पहनाने लगी, मोजा, पाजामा और शर्ट तीनों को मिलाकर बनाये गये सिंगल पीस में बच्चे को घुसाकर बहू ने उसकी चैन खींच दी। और बच्चे को उठाकर खड़ा कर दिया सूट इतना टाइट था कि बच्चा खड़ा हो-होकर गिर रहा था और ठीक से चार कदम भी नही चल पा रहा था।
उसे देखकर मेरा अन्दर ही अन्दर सुबह से रुका हुआ क्रोध भड उठा और मैंने झुंझलाते हुए कहा -''बहू, ये सूट बहुत छोटा है''
'नहीं पापाजी ये नाइट सूट है, ये तो ऐसे ही होते है'-बहू की बात सुनकर मेरा क्रोध बाहर प्रकट हो गयाऔर मैंने गुस्सा से उसे बच्चे के शरीर से उतार कर फैंक दिया-''हाँ, मैं तो कुछ जानता ही नहीं हूँ कि नाइट सूट कैसे होते हैं इतनी उम्र वैसे ही गुजार दी मैंने तो बस तुम लोग ही सब कुछ पेट से सीख आये हो
सुनकर बहूँ  सहम सी गई और फिर कुछ नहीं बोली, दूसरे दिन मुझे शान्त अवस्था में देख कर बहू ने मुझे, अपनी सास को और अपने देवर को अपने पास बुलाया और कल शापिंग करके लाये थैलों में से सभी के कपड़े निकाल-निकाल कर दिखाने लगी-''पापाजी देखिए ये कुर्त्ता-पाजामा आपके लिए कैसा है, भैया देखो ये तुम्हारे लिए जींस कैसी है, मम्मी जी ये आपके लिए साड़ी...........
हम तीनों के कपड़े  दिखाते-दिखाते उसके हाथ में पकड़े  कल वाले दोनों थैले खाली हो गये तो मैने आश्चर्य से पूछा-''अरे! तुम अपने पति अपने लिए कुछ भी नहीं लाई बेटी?''
''नहीं पापाजी अभी हम लोगों के पास तो ढेर सारे कपड़े आदि हैं, आप लोगों के लिए ये सब लाने के लिए काफी समय से सोच रही थी लेकिन समय ही नहीं मिल पा रहा था अब कल थोड़ा सा समय मिला तो चले गये थे हम लोग
सुनकर अवाक्रह गया मैं, हमारी बहूँ हम सबका इतना ध्यान रखती है और हम लोग अब तक उसे समझ ही नहीं पाये थे अब मुझे अपने कल किए गये क्रोध पर पछतावा होने लगा था।


सुनो राजा भोज

से अपने देश और देश में शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए रखे गये पुलिस विभाग पर बड़ा नाज था जब भी और जहाँ भी मौका मिलता वह इन दोनों की प्रशसा करता फिर भी जब भी कोई चोरी-डकैती या गुंडई जैसी अप्रिय घटना घटित हो जाती तो उसे बड़ा अफसोस होता कि पुलिस विभाग के होते यह सब कैसे हो गया।
                जब कोई उसे समझाता कि  तुम किस सतयुग की बात कर रहे हो अब वह पहले वाली पुलिस नहीं रह गई है जो आम आदमी की रक्षा में अपनी जान तक दे देती थी अब तो पुलिस ही गुंडई करे और पुलिस ही गुण्डों की रक्षा भी, आम आदमी जाये भाड  में
सुनकर वह क्रोधित हो उठता पर एक दिन की घटना ने उसके विश्वास को खंडित कर दिया। हुआ ये कि एक शराबी,गुंडा, शराब पीकर उसके घर में घुस आया और दो घंटे तक उसके घर में खूब उत्पात मचाता रहा, शाम को दफ्तर से लौट कर जब उसे सारी बात की जानकारी मिली तो वह सीधा अपने क्षेत्र के पुलिस थाने पहुँचा और सारी घटना पुलिस इंसपेक्टर को बता दी
                उसकी बात सुनते ही इंसपेक्टर ने एक सिपाही को आदेश देकर उसे थाने के लॉकअप में बन्द करा दिया
                पुलिस के इस व्यवहार से वह हतप्रभ था उसने यह बताने की लाख कोशिश की कि दंगा उसने नहीं एक गुंडे ने उसके घर में घुसकर किया था लेकिन पुलिस ने उसकी एक नहीं सुनी
                सुबह होते ही पुलिस ने उसे हथक ड़ी लगाई और कचहरी ले गई
                उसने अपनी जानकारी के अनुसार पुलिस से बहुतेरा प्रतिवाद किया कि नियमानुसार किसी परिवारीजन को सूचित किए बिना आप उसे रातभर थाने में बन्द करके नहीं रख सकते और ही हथकड़ी ही लगा सकते लेकिन पुलिस ने उसकी एक नहीं सुनी और पुलिस के आगे उसके ज्ञान की पोथियाँ धरी की धरी रह गईं,
उसे आभास हो गया कि पुलिस के डंडा छाप व्यवहार के आगे सरकार के सभी नियम कानून बेकार हैं, उसका विश्वास चूर-चूर होकर बिखर गया था, सामने खड़े  इंसपेक्टर और सिपाही ही नहीं आज सारा का सारा थाना उसे गुंडों का जमावड़ा लग रहा था।